गुरुवार, 18 जुलाई 2013

यादें



ना कुछ सुनती है ना मुझसे कुछ कहती है 
लबों पर मुस्कान लिए खुद में ही बिखरती है 
आखों में ख्वाब लिए इंतज़ार करती है 
ना जाने किसकी याद में वो रोज संवरती है 

दर्द सहती है , उलझनों में रहती है 
भीड़ में होकर भी तन्हा सी  लगती है 
हर आहट पर हिरणी सी सिमटी है 
ना जाने किसकी याद में वो  रोज संवरती है  

मनमीत के सपनो में खोई सी रहती है 
आसुओं से अपने आंचल को भिगोती है 
तड़पती है , मचलती है ,आसमाँ को तकती है
ना जाने किसकी याद में वो  रोज संवरती है   

लहरों सी उमड़ती है , नदी सी उफनती है 
बिजली सी कड़कती है ,सावन सी बरसती है 
सागर  की गहराई को कंकड़ो से बेधती है 
ना जाने किसकी याद में वो  रोज संवरती है   

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